अंतरराष्ट्रीय

जिले में नील की खेती से अंग्रेजों के खिलाफ शुरू हुई बगावत

नागेंद्र सिंह की रिपोर्ट

भदोही। जिले में नील की खेती से अंग्रेजों के खिलाफ शुरू हुई बगावत का प्रतीक पाली गोदाम झाड़-झंखाड़ की वोट में गुम हो रहा है। इतिहास के पन्नों में गुम पाली में बने शहीदों के स्मारक आज भी युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्रोत बने हुए हैं।
जिला मुख्यालय से लगभग 12 किलोमीटर दूर स्थित पाली नील गोदाम के खंडहर आज भी अंग्रेजों की बर्बरता की कहानी बयां करते हैं। मखमली कालीनों की इस नगरी में अंग्रेजों के खिलाफ 1857 में पहली क्रांति का बिगुल फूंका गया था। कभी काशी नरेश राज्य खंड का हिस्सा रही भदोही में बड़े पैमानों पर किसान नील की खेती करते थे। बताया जाता है कि अंग्रेजी हुकूमत के चाटुकार हंटर के बल पर किसानों से जबरन नील की खेती करवाते थे। उपज आने पर उसे यूरोपीय देशों को अच्छे मुनाफे में बेच दिया जाता था। जब कभी किसानों ने अंग्रेज हुक्मरानों के विरुद्ध आवाज उठाई तो हंटर के बल पर उनकी आवाज को दबा दिया जाता था।
बताया जाता है कि 1857 में पहली बार अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ देश में बगावत का बिल्कुल फूंका गया था जिसमें जिले के वीर झूरी सिंह और उनके भाई संग्राम सिंह ने अंग्रेजी सत्ता के चाटुकारों को चुनौती दी थी। बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि किस तरह हमारे वीर शहीदों ने ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचार के खिलाफ आवाज उठाई थी। पाली के भिदिउरा गांव निवासी ओम प्रकाश सिंह ने बताया कि ब्रिटिश शासन काल में पाली स्थित नील गोदाम बिहार के बाद दूसरा सबसे बड़ा गोदाम हुआ करता था, जहां अंग्रेज नील की खेती कर कर उसे यूरोप के देशों में बेचते थे। नील बनाने के लिए चार टैंकर और एक विशाल कुएं के साथ चिमनी के भग्नावशेष आज भी विद्यमान हैं। विशाल कुएं के नीचे बना गोदाम झाड़ झंखाड़ से ढंक गया है। इस कारखाने में अंग्रेज स्थानीय किसानों से जबरन नील की खेती करवाते और उनका शोषण करते थे।
बताया जाता है कि उस दौर में मोर साहब पाली गोदाम पर अंग्रेजों के मुनीम के रूप में काम करते थे। यहां एक तरफ किसानों की खेती पर जबरन कब्जा किया जा रहा था, तो दूसरी तरफ उनसे हंटर के दम पर नील गोदाम में खेती कराई जा रही थी। वर्ष 1857 की क्रांति के दौरान पूरे देश में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ विरोध के स्वर उठ रहे थे। इस दौरान जिले में भी गोरों के खिलाफ विरोध के स्वर उठे। जिले के बड़े जमींदार शहीद झूरी सिंह के भाई संग्राम सिंह ने किसानों को लेकर अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी जिससे नाराज अंग्रेजों ने संग्राम सिंह सहित कुछ किसानों को पंचायत के लिए बुलाया और धोखे से जान से मार दिया। इसके बाद संग्राम सिंह की पत्नी ने शपथ लिया कि जब तक गद्दार मोर का कटा सिर नहीं देखेंगी तब तक अन्न जल ग्रहण नहीं करेगी। भाभी के संकल्प को पूरा करने के लिए झूरी सिंह ने मोर का सिर कलम किया और अंग्रेजों को पाली गोदाम से खदेड़ दिया। हालांकि अंग्रेजों ने एक बार फिर धोखा कर झूरी सिंह को फांसी के फंदे पर लटका दिया। शहीद होने के बाद झूरी सिंह देश के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की सूची की फेहरिस्त में इतिहास के पन्नों अपना नाम दर्ज करा लिया। वर्ष 1947 में अंग्रेजी सत्ता के पतन के बाद सरकार ने पाली के पास झूरी सिंह सहित अन्य शहीदों का स्मारक बनवा दिया। एक तरफ नील गोदाम के खंडहर तो वहीं बगल में झूरी सिंह सहित अन्य शहीदों के स्मारक आज भी युवा पीढ़ी के लिए जहां प्रेरणा के स्रोत बने हुए हैं वहीं स्मारक पर हर वर्ष शहीदों की याद में लगने वाले मेले उनके बलिदान को याद दिलाते हैं

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