160 रूपए से कारोबार शुरू कर जलील बने कालीन के प्रतिष्ठित निर्यातक, आज करोड़ों का कर रहे निर्यात
नागेंद्र सिंह की रिपोर्ट
भदोही। चल के चूम लेती है मंजिल अगर…..। यह कहावत हाजी जलील अहमद अंसारी पर सटीक बैठती है, जिन्होंने फर्श से अर्श का सफर करते हुए एक अकुशल बुनकर से जिंदगी की शुरुआत कर प्रतिष्ठित निर्यातक के रूप में कालीन परिक्षेत्र भदोही में न सिर्फ नाम रौशन किया अपितु युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा श्रोत भी बने।
वर्ष 1940 के दशक का एक दौर था जब कालीन नगरी में लगभग एक दर्जन निर्यातक ही गलीचे का कारोबार करते थे। उस समय अंग्रेजी हुकूमत का चहुंओर बोलबाला था। गांवों में गरीबी व बेवसी छाई थी। गरीबी की मार का आलम कुछ ऐसा रहा कि सुबह अगर रोटी मिल भी गई तो शाम को फांकें मारना लोगों की आदत का अंग बन चुकी थी।
इसी दौर में गरीब व असहाय परिवार में हाजी जलील अहमद अंसारी का जन्म होता है बचपन से ही मेधावी व प्रखर बुद्धि के जलील अहमद का प्रवेश इस्लामियां इंग्लिश हाईस्कूल में परिजन करा देते हैं। परिजनों ने अपने लाडले का स्कूल में दाखिला तो करा देते हैं, लेकिन कहा जाता है कि गरीबी मान नहीं रखती। किसी तरह कक्षा 6 तक का शिक्षा का सफर तो पूरा हो जाता है लेकिन कक्षा 7 में प्रवेश के साथ ही धनाभाव के चलते पठन-पाठन का क्रम हमेशा हमेशा के लिए टूट जाता है।
बकौल हाजी जलील अहमद विद्यालय के लिए मुहल्ले के अन्य बच्चों के साथ निकल जाया करते थे लेकिन घर में खाने पीने की मुकम्मल व्यवस्था न होने से पेट में चूहे कूदते थे। दोपहरी में खाना खाने के लिए अन्य बच्चे घर जाया करते थे लेकिन वे कहीं कमरे के एक कोने में बैठ कर समय गुजारते थे लोकराज का भी भय था कि अन्य बच्चों को उपवास की जानकारी हुई तो लोग हेय दृष्टि से देखने लगेंगे।
स्कूली शिक्षा का क्रम टूटते ही किशोरावस्था से ही परिवार की परवरिश की जिम्मेदारी जलील के सिर पर आ गई। मां-बाप की गरीबी व बेवसी बर्दाश्त न होने पर उन्होंने एक कालीन प्रतिष्ठान में नाम मात्र के मानदेय पर नौकरी कर ली। काम के प्रति उनकी लगन, निष्ठा व ईमानदारी को देखकर जल्द ही उन्हें कंपनी का मैनेजर नियुक्त कर दिया गया। नौकरी भी बहुत दिनों तक साथ नहीं दे सकी। लगभग पांच वर्ष तक सेवा करने के बाद मालिक ने उन्हें काम से हटा दिया। जिसका परिणाम कुछ ऐसा रहा कि परिवार के सामने फिर वही फांका मारने जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई। हालांकि इसका दूसरा पक्ष उनके भविष्य का सृजन करने वाला रहा।
नौकरी जाने के बाद महत्वाकांक्षी प्रतिभा के धनी जलील ने कुछ कर गुजरने की ठान ली फिर क्या था घर में एक-एक पाई घर में इकट्ठा कर रखे लगभग 160 रूपए से उन्होंने कालीन का कारोबार शुरू कर दिया। कड़ी मेहनत, ईमानदारी व लगन का असर कुछ ऐसा रहा कि कारोबार दिन दूना रात चौगुना बढ़ता ही गया। वर्ष 1971 में उन्होंने पहला शीपमेंट किया। फिर कामकाज अनवरत बढ़ता ही चला गया। किस्मत ऐसी बदली की भदोही ही नहीं कालीन परिक्षेत्र के जाने-माने टापटेन निर्यातकों में उनकी गिनती होने लगी। कालीन उद्योग जगत में बढ़ी प्रतिष्ठा के कारण उन्हें कई बार कालीन निर्यातकों के संगठन एक्मा व सीईपीसी में महत्वपूर्ण पदों की जिम्मेदारी सौंपी गई। इसी तरह कालीन मेला कमेटी के मानद सचिव से लेकर अध्यक्ष जैसे कई महत्वपूर्ण पदों का उन्होंने बखूबी निर्वहन किया। आज 90 वर्ष की उम्र में भी वह कई कालीन कंपनियों का काम-काज देखते हुए युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत बने हुए हैं





